शून्य होती भावना है
जय विजय की कामना है,
होता पराक्रम निस्पंद सा
मनोवृत्ति के द्वंद सा।
अधर्मों की वृथायें हो रही अब तेज हैं
द्वेष, ईर्ष्या, कुविचार ना हीं कभी निस्तेज हैं,
तोड़ती है दम प्रखरता बुद्धि की ही गोद में
है मनुज तल्लीन कितना, आमोद में प्रमोद में।
-
ps