थोड़े से करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से,
जब कोई चाँद न डूबेगा
और कोई जमीं न उभरेगी |
तब ठंडे बुझे एक कोयले सा
टुकड़ा ये जमीं का घूमेगा
भटका, भटका, मद्धम खाकेस्तरी रौशनी में |
मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर
कागज़ पर लिखी एक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते सूरज में गिरे
और सूरज फिर से जलने लगे |
- गुलज़ार
No comments:
Post a Comment