Friday, September 5, 2014

अर्ध सत्य


चक्रव्यूह में घुसने से पहले कौन था मैं और कैसा था
ये मुझे याद ही न रहेगा
चक्रव्यूह में घुसने के बाद मेरे और चक्रव्यूह के बीच सिर्फ जानलेवा निकटता थी
इसका मुझे पता ही न चलेगा

चक्रव्यूह से बाहर निकलने पर मैं मुक्त हो जाऊं भले ही
फिर भी चक्रव्यूह की रचना में फर्क ही न पड़ेगा
मरूं या मारूं, मारा जाऊं या जान से मार दूँ
इसका फैसला कभी न हो पायेगा

सोया हुआ आदमी जब नींद में से चलकर उठना शुरू करता है
तब सपनों का संसार उसे दोबारा देख ही ना पायेगा
उस रौशनी में जो निर्णय की रौशनी है
सब कुछ समान होगा क्या

एक पलड़े में नपुंसकता,
दूसरे पलड़े में पौरुष
और ठीक तराजू के कांटे पर
अर्ध सत्य ।


-- दिलीप चित्रे ( फिल्म 'अर्ध सत्य' की कविता )

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